
आखिर हम भारतीय स्वतंत्र शिक्षित स्वस्थ्य होकर भी पाकिटमार जीवन जीने को क्यों मजबूर हैं या हमारी अर्थव्यवस्था का जीवन चिड़ीमार जैसा क्यों है जो हमारे समाज को पाकेटमार बना रही है।
देश परिवार धर्म समाज यह विश्वास पर चलते हैं इनकी संरचना हमारे जीवन की उन सभी गतिविधियों में शामिल है जो समय के साथ घटित होती है और इनकी पोषणता में हम सदैव ही द्ृढता से खड़े रहते हैं लेकिन आज का मानव शोषणता के लिये चल पड़ा है जो पाकेटमार जैसा है। जिसका उद्देश्य सिर्फ उदर भराई है।
शिक्षा उदर भरने के लिये देते और लेते है की प्रक्रिया बन गयी है जो सिर्फ उदर भरने की मानसिकता तक ही सीमित है देश समाज और उसके सम्बंधों के मूल्य घटें या बड़े फर्क नहीं आज राष्ट्र निर्माताओं पर, उनका व्यवसाय होना चाहिये,उदर भरना चाहिये... आवश्यकताओं से अधिक चाहने की प्रव्रजन सोच शासकीय से अराजकीय हो जाती है जिसका चलन हमारे समाज में अर्थव्यवस्था को संभालने वाले विभागों में सिफारिशों के दौर में देख लें बरमखुद्दार... भ्रष्टाचार बेईमानी दलाली रिश्वतखोरी को मिठाई कहा जाता है। यह पाकेटमार जैसा ही है बस उसके पास लाईसेंस नहीं है और यह संस्थापक और संरक्षक वर्दी में हैं लाईसेंस के साथ फर्क तनिक मात्र है।
स्वास्थय की चर्चा करें तो यहां भी आज आधुनिक युग में जहां गांव में लाखों रुपये के मोबाइल का बाजार टावर तो घर घर पहुंचा मगर डाक्टर अस्पताल हर गांव नहीं पहुंचा। लाखों रुपये में जातिवाद धर्मवाद पर बना डाक्टर झोला छाप डाक्टर को कमीशन दे रहा है जो पाकेटमार से कम नहीं है।
सुरक्षा के नाम पर क्या मिल रहा है समाज को सिवाय पंचनामा भरवाने सिग्नेचर करने जिसपर मुआवजा तय है, न्याय के नाम स्टाम्प बिक्री जिसका कोई मूल्य तय होकर भी एक नहीं है। मेरे एक व्यक्तिगत सर्वे में भारत का आदमी आजादी के बाद कोर्ट कचहरी के चक्कर में पड़कर ज्यादा बर्बाद हुआ है चाहे तो आप अपना अनुभव या मित्र पड़ोसी को देख सुन समझ लो सत्य यही है और पाकेटमार से कम नहीं है विवेचना यही कहती है जब आप कोर्ट कचहरी के चक्कर में आते हैं। जबकि पंचायतों में फैसला तो होता लेकिन पंचनामा नहीं भरा जाता था अब पंचनामा भरने के बाद पंचायत तय होती है जिसकी तारीख तो है बार बार आने की मगर कभी न आने कि बात पर कौआ काट लेता है।
रोजगार की बात करो तो पूरे देश की अर्थव्यवस्था में पाकेटमारी से काम चलता है ऐसा समाज का अशुद्ध वातावरण बयां करता है मानव जीवन की हर उस अभिव्यक्ति में जो वह जीता है। जहां पर अर्थव्यवस्था का सानिध्य तय है जाति धर्म के आधार पर जो विचारात्मक कम अराजात्मक ज्यादा महत्वपूर्ण है वह किसी के जीवन का शोषण कर सकती है पोषण नहीं।
समाज के सत्ता शासन में पाकेटमारी खेल जोरों पर है प्रत्याशित बाजार तय है जिसमें बाहुबल बहूमूल्य और टका भारी है वही शौकत का ईमान भाव में ताली है लेकिन जो गड्ढे में गिरे जातिय गधे जैसा है। कोई हालात पर मसौदा नहीं तैयार जातिय धर्मी नारों का सजा चौसा है बारात सा बुलावा चुनाव भी बबूआ के जन्म दिन जैसा है खूब पियो पिलाओ कदूआ पर मोहर लगाओ। जनता पर फिर करो राज्य या पाकेटमारी इलाका बांट कर बैठे मोशाय।
कभी समाज में निकला करो आदमियत से मिला करो दर्द कैसा है बुद्ध समझे संसद का जलवा महलों सा कातिब इरादा देख कर जनता डरती सलाम करती ऐसी बादशाहियत प्रजातंत्र की परिभाषा को खण्डित करती हैं।
बहुत कुछ अब मंचों पर भी शब्दों की पाकेटमारी जमकर होने लगी है तबलमंजनी के जलवे की रिमेक बनती है नेतागीरी खूब जमती है,लेखक की उदरभराई क्रांतिवृत्त कहां बनाई,जहां भी बैठे अंधीधुन बनाई ,खैरात के बाजीगड़ ने कब तकदीर बनाई मुकद्दर की बात जब आई। लेकिन वह तमाशा करके चला गया आजके समाज का पीठासीन मंचीय कवि अकेला बैठा है।
बाबा
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