जिओ उनके लिए


Shivraj Anand2023/02/05 09:05
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            मेरे जीने की आस जिंदगी से कोसो दूर चली गयी थी  कि अब मेरा कौन है ? मैं किसके लिए अपना आँचल पसारुंगा ? पर देखा-लोक-लोचन में असीम वेदना। तब मेरा ह्रदय मर्मान्तक हो गया , फिर मुझे ख्याल आया कि अब मुझे जीना होगा , हाँ अपने स्वार्थ के लिए न सही ,परमार्थ के लिए ही ।

     मैं ज़माने का निकृष्ट था तब देखा उस सूर्य को कि वह निःस्वार्थ भाव से कालिमा में लालिमा फैला रहा है तो क्यों न मैं भी उसके सदृश बनूं ।भलामानुष वन सुप्त मनुष्यत्व  को जागृत करुं। मैं शैने-शैने सदमानुष के आँखों से देखा-लोग असहा दर्द से विकल है उनपर ग़मों व दर्दों का पहाड़ टूट पड़ा है और चक्षुजल ही जलधि बन पड़ी हैं  फिर तो मैं एक पल के लिए विस्मित 

हो गया । मेरा कलेजा मुंह को आने लगा।परन्तु दुसरे क्षण वही कलेजा ठंडा होता गया और मैंने  चक्षुजल से बने जलधि को रोक दिया ।क्योंकि तब तक मैं भी दुनिया का एक अंश बन गया था । जब तक मेरी सांसें चली.. तब तक मैं उनके लिए आँचल पसारा

किन्तु अब मेरी साँसे लड़खड़ाने लगी हैं , जो मैंने उठाए थे ग़मों व दर्दों के पहाड़ से भार को वह पुनः गिरने लगा है ।

         अतः  हे भाई !अब मैं उनके लिए तुम्हारे पास ,  आस  लेकर आँचल पसारता हूँ ... और कहता हूँ तुम उन अंधों के आँख बन जाओ ,तुम उन लंगड़ों के पैर बन जाओ और  जिओ 'उनके लिए' . क्या तुम उनके लिए जी सकोगे ? या तुम भी उन जन्मान्धों के सदृश काम (वासना) में अंधे बने रहोगे ?

     राष्ट्रिय कवि मैथिलीशरण गुप्त ने ठीक ही कहा है –

' जीना तो है उसी का , 

                   जिसने यह राज़ जाना है।

है काम आदमी का , 

            औरों के काम आना है ।।



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